Tuesday, 6 February 2018

पाल समाज संत शिरोमणि कनकदास जीवनी

संत शिरोमणि कनकदास जीवनी -


संत कनकदास का जन्म एतहासिक कुरुबा (देवासी) समुदाय में सन 1486में कर्नाटक राज्य के धारवाड़ जिले के बाकापुर नगर के समीप वाडा नामक गाव में हुआ था | इनके पिता का नाम वीरेगोडा तथा माता का नाम बच्चामा था |इनके पिता के पास विजयनगर साम्राज्य में 78गावो की जमीदारी थी |संत कनकदास के बचपन का नाम तिमप्पा था ये बचपन से ही धार्मिक प्रवती के थे इन्हें भजन गाने, प्रवचन सुनने का विशेष शोक था|जब वे 13 वर्ष के थे तो इनके पिता का स्वर्गवास हो गया इनकी पैतृक जमीदारी छीन गयी फलत: ये गाव-गाव घूम कर भक्तिपरक गीत गाने , धार्मिक पोराणिक चरित्र का अभिनय करने में अपना जीवन व्यतीत करने लगे |धीरे-धीरे इन्हें बहुत बड़े भक्त , कवी , संगीतज्ञ एव कवि के रूप में ख्यति प्राप्त हो गयी | इन सबके बावजूद ये दैनिक जीवन में भेड़-बकरी चराया करते थे |अचानक एक दिन खेत में उन्हें खुदाई में कुछ स्वर्ण पात्र मिले जिससे उन्होंने धार्मिक क्रियाकलापो पर जैसे मंदिरों में धन लगाना , निर्धनों में भोजन बाटना धार्मिक आयोजनों में बड़े उत्साह से खर्च किया | उनकी पचन बहुत बड़े दानी के रूप में होने लगी |लोग उन्हें तिमप्पा के बजाय “कानाकप्पा “ या “कनकराज” के नाम से पहचानने लगे |एक ख्यति प्राप्त कवि एव भक्त के रूप में जब इनकी खयाति विजयनगर के सम्राट कृष्ण देव राय तक पहुची तो सम्राट ने इन्हें अपने पास बुलवाया , कई गाव का प्रशासक बनाया तथाइनका नाम कनाकप्पा से बदलकर कनक नायकहो गया | कनाक्दास ने कवि के रूप में कई रचनाए की उनकी प्रसिद्ध कविता “कुला कुला कुला “ बड़ी चर्चित हुई जिसे उन्होंने जातीय भेदभाव से पीडित होने पर लिखा था जिसका संशिप्त भावार्थ था कि एक ही तरह से पैदा होने वाले , वही खाना , वही पानी पीने वाले है तो एक उच्च और दूसरा निम्न या नीचे क्यों है? इसके अतरिक्त इन्होने “नल चरित्र “ ( रजा नल की कहानी ), “ हरिभाक्तिसार “ (जिसमे भगवन कृष्ण / विष्णु की शक्ति रचनायेहै ), की रचना की | रजा कृष्ण देव राय के यहाँ रहते हुए रजा के बारे में “मोहन तरंगनी “ ग्रन्थ लिखा | भगवन नरसिंह की भक्ति में“नरसिंह स्तव “ लिखा |इसी प्रकारइनकी एक और प्रशिद रचना है “राम धयान चरित्र “ नाम से है जिसमे इन्होने ऊँची और नीची जातियों के बारे में प्रतीकात्मक रूप सेलिखा है | इस रचना की कथा में रागी और चावल की लड़ाई के लड़ाई होजाती है | दोनों अपने को एक दुसरे से स्रेस्थ बताते है | दोनों फैसला करने भगवान् राम केपास जाते है | राम दोनों को 6 माहजेल /कैद की सजा देते है जहा अंत: चावल सड जाता है और रागी बाख जाता है यहाँ चावल को उच्च तथा रागी को निम्न वर्ग के प्रतिनिधित्व में दिखाया गया है |कालांतर में पारिवारिक जीवन में आये अनेक दुखो से टूट कर कनकनायक भक्ति मार्ग पर मुड गए |स्वपन में भगवन तिरुमलेश ने इन्हें कुछ सन्देश दिए | धयान न देने पर भगवन ने जीवन की कुछ घटने बताते हुए इन्हें प्रभु सेवा करने को कहा | कनक नायक ने हाथ जोड़ कर कहा प्रभु में अब आपका दास बनूँगा इसी घटना के उपरांत इन्होने अपना नाम कनक नायक से बदल कर “ कनकदास “ कर लिया , राजसी वस्त्र त्याग दिए , सामान्य वेशभूषा अपना ली जिसने घुटनों तक धोती , कंधे पर कम्बल , दाये हाथ में एक तारा तथा बाये हाथ में खडताल धारण किया | इसके उपरांत वे भक्ति भाव से भ्रमण करने लगे जगह जगह मंदिरों में जाना, भजन गाना उनका कार्य था | कनकदास ने बागिनेले में भगवन आदि केशव के मंदिर का निर्माण कराया | एक बार वे एक मठ में प्रवेश कर रहे थे तो उनकी जाति पूछी गयी जिसका उन्होंने अध्यात्मिक उत्तर दिया | जब मठ वालो को समझ नहीं आया तो उन्होंने भजन गया जिसमे कहा हम गड़ेरिया है वीरप्पा हमारे भगवन है जो मानव की भेड़ की रक्षा करतेहै | मठधिश उनकी भक्ति और सेवाभाव से बहुत प्रभावित हुए और आगे से उन्होंने मठ में जातीय भेदभाव न करने की बात कही|एक बार कनकदास ने उदुप्पी में कृष्ण मंदिर में भगवान् कृष्ण के दर्शन करने चाहे लेकिन यहाँ भी ब्राहमणों ने जाति दुवेष के कारण उन्हें मंदिर में नहीं घुसने दिया | वे कई दिन तक भूखे प्यासे मंदिर के बहार पड़े रहे | मान्यता है की भगवन कृष्ण को उन पर दया आई और वे उनके पास ग्वालेके रूप में आये और एक स्वर्ण आभूषण देकर कहा कि इसे बेच कर अपनी भूख मिटाओ | कनकदास ने ऐसा ही किया | प्रात: मंदिर खुलने पर भगवन कृष्ण की मूर्ति से वही आभूषण गायब मिला | खोजबीन हुए तोकनकदास ने सारी बात सच सच बता दी| तब व्यवस्थापको ने दुकान से आभूषण लेकर पुन: मंदिर में यथास्थान स्थापित किया | इसी प्रकार उदुप्पी में ही कृष्ण मंदिर में महापूजा का आयोजन हुआइन्हें कृष्ण के दर्शन की तीव्र इच्छा थी लेकिन जातीय विदूवेशवंश इन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं दिया गया | निराश होकर ये मंदिर के पिछवाड़े चले गए और दुखी होकर कृष्ण का भजन गाने लगे | अचानक चमत्कार हुआ , मंदिर के पिछवाड़े की दिवार टूटकर उसमे एक छेद हो गया जहा सेभगवन कृष्ण ने कनकदास को साक्षात् दर्शन दिए | कनकदास भगवन कृष्ण के अप्रितम सोंदर्य को निहारे जा रहे थे , उधर मंदिर का पुजारी जो पूजा कर रहा था देखता है कि भगवन उसकी ओर पीठ करके खड़े है | जब इसके कारन का पता लगाया गया तो सभी ने कनकदास की भक्तिभाव को प्रणाम किया | इनचमत्कारिक घटनाओ के कारण कनकदास को अपार लोकप्रियता तथा संत सिरोमणि का दर्जा मिला | तब से लेकर आज तक उदुप्पी के कृष्ण मंदिर में प्रष्ठ भाग की दिवार में बनी खिडकीजो आज भी विधमान है “कनक खिडकी” के नाम से प्रसिद्ध है | लोग इस चमत्कारिक घटना के साक्ष्य के रूप में इस खिडकी एव कृष्ण भगवन का दर्शन करने जाते है |ऐसे थे हमारे महँ संत कनकदास जी |
ऎसे सच्चे भक्तो को सच्चे मन से प्रणाम



दक्षिण भारत के संत कनक दास के बारे में लेखक बी एन  गोयल जी ने लिखा है -

 

आरिगारील्ल आपत्काल दौलगे  – 

वारिजाशन नाम नेने कंडया मन वे।  … … 

 

विपत्ति के समय कोई किसी का नहीं होता,

हे मूर्ख मना,

तू भगवान के नाम का स्मरण कर  –

जब तू भूख से तड़प रहा हो,

जब बैरी तुझे चारों ओर से घेर लें

जब बीमार होने पर शरीर जर्जर हो जाये,

जब तू अधरी हो उठे, और

जब तुझ पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़े,

तब तू भगवान के नाम का स्मरण कर। । …. …

 

कनक दास के मुख से यह भजन निकला था जब मल्ल नायक के साथियों ने कनक दास पर अचानक प्राण घातक वार कर दिया था  और वह बच गया। उस समय कनक दास के मुख से यह भजन निकला।  वार बहुत जबरदस्त था और कनक दास का शरीर लहू लुहान हो गया था, वह अचेतन था लेकिन जैसे ही उसे चेतना आई – उस ने इस भजन से प्रभु स्मरण किया।

 

कनक दास तेरहवीं शताब्दी के महान भक्त संत थे।  वे वैष्णव मत के प्रचारक थे और उन की गणना आचार्य माधव के अनुयायियों में होती है।  इन मैं मुख्य नाम नरहरि तीर्थ, श्रीपाद तीर्थ , व्यास तीर्थ, वादि राज, पुरन्दर दास, राघवेन्द्र तीर्थ, विजय दास, गोपाल दास आदि हैं।  ये सभी परम ज्ञानी सन्त थे।

 

कनक दास का जन्म कर्णाटक में धारवाड़ ज़िले के बंका पुर गांव में  बीर गौडा और बचम्मा के गड़रिया परिवार में हुआ था।  यह दम्पति सभी तरह से सुख सुविधा संपन्न था लेकिन काफी समय तक निःसंतान था। संतान प्राप्ति के लिए इन्होंने अनेक देवी देवताओं की पूजा अर्चना की, व्रत – उपवास किये, मन्नत मनौतियां मांगी, दान दक्षिणा में भी कोई कमी नहीं रखी लेकिन संतान सुख नहीं मिल सका।  एक दिन जब वे अपना नित्य क्रम के बाद सो गए तो अचानक इन्हें स्वप्न में आभास हुआ जैसे कि तिरुपति के भगवान वेंकट रमण स्वामी  अपने हाथ के संकेत से इन्हें  अपने पास बुला रहे हैं । इन्हें लगा इन्हें भगवत दर्शन के लिए तिरुपति जाना चाहिए । अतः सुबह सोकर उठने के बाद दम्पति ने अपनी यात्रा की तैयारी शुरू कर दी।

 

एक महीने की पैदल यात्रा के बाद ये दोनों तिरुपति पहुंचे । रास्ते में कई नदियां, नाले, ताल तलैया पार किये।  टीलों, पहाड़ों, पर्वत मालाओं से गुज़रे और अंततः तिरुपति पहुँच गए।  वहां पहुँच कर इन दोनों ने पूरे 48 दिन तक व्रत, पूजा, ध्यान आदि किये और जब ऐसा लगा कि  उन्हें भगवान का प्रसाद मिल गया है तो ये वापिस अपने घर के लिए चल दिए।  परिणाम स्वरूप 1508 संवत्सर  के कार्तिक महीने में कृष्ण पक्ष की तृतीया को गुरुवार के दिन इन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। श्री तिरुपति तिमप्पा की कृपा से बालक हुआ था अतः उस का नाम भी तिमप्पा रखा गया।

 

तिमप्पा ने अपनी दीक्षा प्रतिभा के बल पर पांच छह वर्षों में ही दस पन्द्रह वर्षों का ज्ञान अर्जित कर लिया।  आठ वर्ष की आयु में ही तिमप्पा संस्कृत और कन्नड़ भाषा की व्याकरण में पारंगत हो गए।  इन की अद्भुत ग्रहण क्षमता,  तर्क वितर्क कुशलता , और धर्म विवेचना की प्रतिभा से गुरु श्री निवासाचार्य जी अभिभूत थे।  इस के बाद भी तिमप्पा अपने व्यवहार में अत्यंत विनम्र और विनीत थे।

 

वेद शास्त्र पुराण पुण्पद हदियनु नानरिये तर्क़द। ……. 

 

मैं वेदों शास्त्रों, पुराणों आदि द्वारा बताये गए पुण्य मार्ग को नहीं समझ पाता हूँ। मैं विभिन्न तर्कों और वाद विवादों को भी नहीं समझ पाता हूँ।  मैं मंद बुद्धि हूँ।  तुम आदि मूर्ति  हो, तुम मेरे ह्रदय रूपी आँगन में ज्ञान का प्रकाश करो और हमेशा मेरी रक्षा करो।

 

हासिवरितु ताय तन्न शिशुविगे। ……। 

 

“जिस प्रकार कोई माँ अपने बच्चे को भूखा जान कर अपने स्तनों से दूध पिलाती है उसी प्रकार तेरे सिवाय कौन है जो हमारा पालन पोषण करेगा। वेद कहते हैं की तुझ में सारा ब्रह्मांड समाया हुआ है।  हे प्रभु हमारी रक्षा करो।”

 

कनक दास ने इस प्रकार के 160 पद लिखे जो उन की पुस्तक हरी भक्ति सागर में संकलित हैं।  इन के गुरु इन्हें तिमप्पा की बजाय तिम्मरस कहते थे। इस का अर्थ है तिम्मराजा।  इन के ह्रदय में गुरु जनों और देवताओं के प्रति असीम श्रद्धा थी।  वे प्रतिदिन केशव के मंदिर में जाकर उन की मूर्ति को टकटकी लगा कर देखते रहते थे।  उन के मन में विचार उठते, ” मैं कहाँ से आया हूँ ? आगे मुझे कहाँ जाना है ? यहाँ कब तक   रहना है ? इन्हें सभी व्यक्तियों में भगवद् दर्शन होते थे।

 

एक दिन की बात है। तिम्मरस भगवन ध्यान में लीन थे।  उन्हें लगा की पवन पुत्र हनुमान जी की मूर्ति उन के सामने विराज मान है।  उन के मन में हनुमान जी और उन से जुडी भगवान राम सम्बन्धी सभी घटनाएं एक चित्र श्रृंखला की तरह दिखाई देने लगी।  देखते देखते उन्हें ऐसा लगने लगा जैसे सभी घटनाएं उन के सामने घटित हो रही हों। थोड़ी देर बाद सामान्य स्थिति आने पर उन्हें लगा  शायद

संत कनकदास ने बताई सही राह -


दक्षिण भारत में एक संत हुए हैं जिनका नाम था मध्वाचार्य। मध्वाचार्य के अनेक शिष्य थे। उन शिष्यों में एक का नाम था - कनकदास। साधु कनकदास आला दर्जे के संत थे। ज्ञान और विनम्रता की वे प्रतिमूर्ति थे।
 
एक दिन मध्वाचार्य के कुछ शिष्य इस विषय पर परस्पर चर्चा कर रहे थे कि ईश्वर को कौन प्राप्त कर सकता है। सभी के अलग-अलग मत थे और किसी भी एक मत पर सहमति नहीं हो पा रही थी। अंततोगत्वा सभी ने साधु कनकदास से पूछने का निश्चय किया।
 
शिष्यों में से एक साधु ने सर्वप्रथम कनकदास से प्रश्न किया - ‘क्या मैं परमात्मा को पा सकता हूं?’ कनकदास ने उत्तर दिया- ‘अवश्य, किंतु यह तब होगा जब ‘मैं’ जाएगा।’ इसके बाद सभी शिष्यों ने बारी-बारी से यही सवाल किया और सभी को कनकदास ने यही उत्तर दिया। हैरान शिष्यों में से एक ने उनसे पूछा- ‘स्वामीजी आप भी तो भगवान के पास जाएंगे न?’ कनकदास बोले- ‘अवश्य जाऊंगा, किंतु तभी, जब ‘मैं’ जाएगा।’
 
शिष्य ने अगला प्रश्न किया - ‘स्वामीजी! यह ‘मैं’ कौन है और यह किस-किस के साथ जाएगा?’ तब कनकदास ने स्पष्ट किया- ‘मैं’ का अर्थ है मोह, अहंकार। जब तक ‘मैं’ और ‘मेरा’ तथा ‘मैं हूं’ का अहंकार नहीं मिटेगा, तब तक हम ईश्वर को नहीं पा सकते। वस्तुत: प्रभु प्राप्ति के मार्ग की यही सबसे बड़ी रुकावट है।’ सभी शिष्यों के मन की उलझन कनकदास के उत्तर से दूर हो गई। सार यह है कि अहंकार द्वैतभाव को लाता है, जो अद्वैत की राह की सर्वप्रमुख बाधा है। अहंकार का विसर्जन ही ईश्वर से एकाकार होने की दिव्य उपलब्धि कराता है।

ऐसे संत को मैं सत्-सत् नमन करता हूं।

जय संत शिरोमणि कृष्ण-भक्त कनकदास की।

जय पाल समाज।

पाल समाज छतरपुर म.प्र. ( युवा संगठन )

2 comments:

  1. Hindi ke sabdon me bahut galtiyaan hai,aise likhkar gar internet pe dijiyega to hum kaise padhenge?

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  2. संत कनकदास पाल समिति मेरठ उत्तर प्रदेश भी सामाजिक कार्य कर रही हैं

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