Thursday, 15 February 2018

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जय पाल समाज

Tuesday, 6 February 2018

पाल समाज संत शिरोमणि कनकदास जीवनी

संत शिरोमणि कनकदास जीवनी -


संत कनकदास का जन्म एतहासिक कुरुबा (देवासी) समुदाय में सन 1486में कर्नाटक राज्य के धारवाड़ जिले के बाकापुर नगर के समीप वाडा नामक गाव में हुआ था | इनके पिता का नाम वीरेगोडा तथा माता का नाम बच्चामा था |इनके पिता के पास विजयनगर साम्राज्य में 78गावो की जमीदारी थी |संत कनकदास के बचपन का नाम तिमप्पा था ये बचपन से ही धार्मिक प्रवती के थे इन्हें भजन गाने, प्रवचन सुनने का विशेष शोक था|जब वे 13 वर्ष के थे तो इनके पिता का स्वर्गवास हो गया इनकी पैतृक जमीदारी छीन गयी फलत: ये गाव-गाव घूम कर भक्तिपरक गीत गाने , धार्मिक पोराणिक चरित्र का अभिनय करने में अपना जीवन व्यतीत करने लगे |धीरे-धीरे इन्हें बहुत बड़े भक्त , कवी , संगीतज्ञ एव कवि के रूप में ख्यति प्राप्त हो गयी | इन सबके बावजूद ये दैनिक जीवन में भेड़-बकरी चराया करते थे |अचानक एक दिन खेत में उन्हें खुदाई में कुछ स्वर्ण पात्र मिले जिससे उन्होंने धार्मिक क्रियाकलापो पर जैसे मंदिरों में धन लगाना , निर्धनों में भोजन बाटना धार्मिक आयोजनों में बड़े उत्साह से खर्च किया | उनकी पचन बहुत बड़े दानी के रूप में होने लगी |लोग उन्हें तिमप्पा के बजाय “कानाकप्पा “ या “कनकराज” के नाम से पहचानने लगे |एक ख्यति प्राप्त कवि एव भक्त के रूप में जब इनकी खयाति विजयनगर के सम्राट कृष्ण देव राय तक पहुची तो सम्राट ने इन्हें अपने पास बुलवाया , कई गाव का प्रशासक बनाया तथाइनका नाम कनाकप्पा से बदलकर कनक नायकहो गया | कनाक्दास ने कवि के रूप में कई रचनाए की उनकी प्रसिद्ध कविता “कुला कुला कुला “ बड़ी चर्चित हुई जिसे उन्होंने जातीय भेदभाव से पीडित होने पर लिखा था जिसका संशिप्त भावार्थ था कि एक ही तरह से पैदा होने वाले , वही खाना , वही पानी पीने वाले है तो एक उच्च और दूसरा निम्न या नीचे क्यों है? इसके अतरिक्त इन्होने “नल चरित्र “ ( रजा नल की कहानी ), “ हरिभाक्तिसार “ (जिसमे भगवन कृष्ण / विष्णु की शक्ति रचनायेहै ), की रचना की | रजा कृष्ण देव राय के यहाँ रहते हुए रजा के बारे में “मोहन तरंगनी “ ग्रन्थ लिखा | भगवन नरसिंह की भक्ति में“नरसिंह स्तव “ लिखा |इसी प्रकारइनकी एक और प्रशिद रचना है “राम धयान चरित्र “ नाम से है जिसमे इन्होने ऊँची और नीची जातियों के बारे में प्रतीकात्मक रूप सेलिखा है | इस रचना की कथा में रागी और चावल की लड़ाई के लड़ाई होजाती है | दोनों अपने को एक दुसरे से स्रेस्थ बताते है | दोनों फैसला करने भगवान् राम केपास जाते है | राम दोनों को 6 माहजेल /कैद की सजा देते है जहा अंत: चावल सड जाता है और रागी बाख जाता है यहाँ चावल को उच्च तथा रागी को निम्न वर्ग के प्रतिनिधित्व में दिखाया गया है |कालांतर में पारिवारिक जीवन में आये अनेक दुखो से टूट कर कनकनायक भक्ति मार्ग पर मुड गए |स्वपन में भगवन तिरुमलेश ने इन्हें कुछ सन्देश दिए | धयान न देने पर भगवन ने जीवन की कुछ घटने बताते हुए इन्हें प्रभु सेवा करने को कहा | कनक नायक ने हाथ जोड़ कर कहा प्रभु में अब आपका दास बनूँगा इसी घटना के उपरांत इन्होने अपना नाम कनक नायक से बदल कर “ कनकदास “ कर लिया , राजसी वस्त्र त्याग दिए , सामान्य वेशभूषा अपना ली जिसने घुटनों तक धोती , कंधे पर कम्बल , दाये हाथ में एक तारा तथा बाये हाथ में खडताल धारण किया | इसके उपरांत वे भक्ति भाव से भ्रमण करने लगे जगह जगह मंदिरों में जाना, भजन गाना उनका कार्य था | कनकदास ने बागिनेले में भगवन आदि केशव के मंदिर का निर्माण कराया | एक बार वे एक मठ में प्रवेश कर रहे थे तो उनकी जाति पूछी गयी जिसका उन्होंने अध्यात्मिक उत्तर दिया | जब मठ वालो को समझ नहीं आया तो उन्होंने भजन गया जिसमे कहा हम गड़ेरिया है वीरप्पा हमारे भगवन है जो मानव की भेड़ की रक्षा करतेहै | मठधिश उनकी भक्ति और सेवाभाव से बहुत प्रभावित हुए और आगे से उन्होंने मठ में जातीय भेदभाव न करने की बात कही|एक बार कनकदास ने उदुप्पी में कृष्ण मंदिर में भगवान् कृष्ण के दर्शन करने चाहे लेकिन यहाँ भी ब्राहमणों ने जाति दुवेष के कारण उन्हें मंदिर में नहीं घुसने दिया | वे कई दिन तक भूखे प्यासे मंदिर के बहार पड़े रहे | मान्यता है की भगवन कृष्ण को उन पर दया आई और वे उनके पास ग्वालेके रूप में आये और एक स्वर्ण आभूषण देकर कहा कि इसे बेच कर अपनी भूख मिटाओ | कनकदास ने ऐसा ही किया | प्रात: मंदिर खुलने पर भगवन कृष्ण की मूर्ति से वही आभूषण गायब मिला | खोजबीन हुए तोकनकदास ने सारी बात सच सच बता दी| तब व्यवस्थापको ने दुकान से आभूषण लेकर पुन: मंदिर में यथास्थान स्थापित किया | इसी प्रकार उदुप्पी में ही कृष्ण मंदिर में महापूजा का आयोजन हुआइन्हें कृष्ण के दर्शन की तीव्र इच्छा थी लेकिन जातीय विदूवेशवंश इन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं दिया गया | निराश होकर ये मंदिर के पिछवाड़े चले गए और दुखी होकर कृष्ण का भजन गाने लगे | अचानक चमत्कार हुआ , मंदिर के पिछवाड़े की दिवार टूटकर उसमे एक छेद हो गया जहा सेभगवन कृष्ण ने कनकदास को साक्षात् दर्शन दिए | कनकदास भगवन कृष्ण के अप्रितम सोंदर्य को निहारे जा रहे थे , उधर मंदिर का पुजारी जो पूजा कर रहा था देखता है कि भगवन उसकी ओर पीठ करके खड़े है | जब इसके कारन का पता लगाया गया तो सभी ने कनकदास की भक्तिभाव को प्रणाम किया | इनचमत्कारिक घटनाओ के कारण कनकदास को अपार लोकप्रियता तथा संत सिरोमणि का दर्जा मिला | तब से लेकर आज तक उदुप्पी के कृष्ण मंदिर में प्रष्ठ भाग की दिवार में बनी खिडकीजो आज भी विधमान है “कनक खिडकी” के नाम से प्रसिद्ध है | लोग इस चमत्कारिक घटना के साक्ष्य के रूप में इस खिडकी एव कृष्ण भगवन का दर्शन करने जाते है |ऐसे थे हमारे महँ संत कनकदास जी |
ऎसे सच्चे भक्तो को सच्चे मन से प्रणाम



दक्षिण भारत के संत कनक दास के बारे में लेखक बी एन  गोयल जी ने लिखा है -

 

आरिगारील्ल आपत्काल दौलगे  – 

वारिजाशन नाम नेने कंडया मन वे।  … … 

 

विपत्ति के समय कोई किसी का नहीं होता,

हे मूर्ख मना,

तू भगवान के नाम का स्मरण कर  –

जब तू भूख से तड़प रहा हो,

जब बैरी तुझे चारों ओर से घेर लें

जब बीमार होने पर शरीर जर्जर हो जाये,

जब तू अधरी हो उठे, और

जब तुझ पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़े,

तब तू भगवान के नाम का स्मरण कर। । …. …

 

कनक दास के मुख से यह भजन निकला था जब मल्ल नायक के साथियों ने कनक दास पर अचानक प्राण घातक वार कर दिया था  और वह बच गया। उस समय कनक दास के मुख से यह भजन निकला।  वार बहुत जबरदस्त था और कनक दास का शरीर लहू लुहान हो गया था, वह अचेतन था लेकिन जैसे ही उसे चेतना आई – उस ने इस भजन से प्रभु स्मरण किया।

 

कनक दास तेरहवीं शताब्दी के महान भक्त संत थे।  वे वैष्णव मत के प्रचारक थे और उन की गणना आचार्य माधव के अनुयायियों में होती है।  इन मैं मुख्य नाम नरहरि तीर्थ, श्रीपाद तीर्थ , व्यास तीर्थ, वादि राज, पुरन्दर दास, राघवेन्द्र तीर्थ, विजय दास, गोपाल दास आदि हैं।  ये सभी परम ज्ञानी सन्त थे।

 

कनक दास का जन्म कर्णाटक में धारवाड़ ज़िले के बंका पुर गांव में  बीर गौडा और बचम्मा के गड़रिया परिवार में हुआ था।  यह दम्पति सभी तरह से सुख सुविधा संपन्न था लेकिन काफी समय तक निःसंतान था। संतान प्राप्ति के लिए इन्होंने अनेक देवी देवताओं की पूजा अर्चना की, व्रत – उपवास किये, मन्नत मनौतियां मांगी, दान दक्षिणा में भी कोई कमी नहीं रखी लेकिन संतान सुख नहीं मिल सका।  एक दिन जब वे अपना नित्य क्रम के बाद सो गए तो अचानक इन्हें स्वप्न में आभास हुआ जैसे कि तिरुपति के भगवान वेंकट रमण स्वामी  अपने हाथ के संकेत से इन्हें  अपने पास बुला रहे हैं । इन्हें लगा इन्हें भगवत दर्शन के लिए तिरुपति जाना चाहिए । अतः सुबह सोकर उठने के बाद दम्पति ने अपनी यात्रा की तैयारी शुरू कर दी।

 

एक महीने की पैदल यात्रा के बाद ये दोनों तिरुपति पहुंचे । रास्ते में कई नदियां, नाले, ताल तलैया पार किये।  टीलों, पहाड़ों, पर्वत मालाओं से गुज़रे और अंततः तिरुपति पहुँच गए।  वहां पहुँच कर इन दोनों ने पूरे 48 दिन तक व्रत, पूजा, ध्यान आदि किये और जब ऐसा लगा कि  उन्हें भगवान का प्रसाद मिल गया है तो ये वापिस अपने घर के लिए चल दिए।  परिणाम स्वरूप 1508 संवत्सर  के कार्तिक महीने में कृष्ण पक्ष की तृतीया को गुरुवार के दिन इन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। श्री तिरुपति तिमप्पा की कृपा से बालक हुआ था अतः उस का नाम भी तिमप्पा रखा गया।

 

तिमप्पा ने अपनी दीक्षा प्रतिभा के बल पर पांच छह वर्षों में ही दस पन्द्रह वर्षों का ज्ञान अर्जित कर लिया।  आठ वर्ष की आयु में ही तिमप्पा संस्कृत और कन्नड़ भाषा की व्याकरण में पारंगत हो गए।  इन की अद्भुत ग्रहण क्षमता,  तर्क वितर्क कुशलता , और धर्म विवेचना की प्रतिभा से गुरु श्री निवासाचार्य जी अभिभूत थे।  इस के बाद भी तिमप्पा अपने व्यवहार में अत्यंत विनम्र और विनीत थे।

 

वेद शास्त्र पुराण पुण्पद हदियनु नानरिये तर्क़द। ……. 

 

मैं वेदों शास्त्रों, पुराणों आदि द्वारा बताये गए पुण्य मार्ग को नहीं समझ पाता हूँ। मैं विभिन्न तर्कों और वाद विवादों को भी नहीं समझ पाता हूँ।  मैं मंद बुद्धि हूँ।  तुम आदि मूर्ति  हो, तुम मेरे ह्रदय रूपी आँगन में ज्ञान का प्रकाश करो और हमेशा मेरी रक्षा करो।

 

हासिवरितु ताय तन्न शिशुविगे। ……। 

 

“जिस प्रकार कोई माँ अपने बच्चे को भूखा जान कर अपने स्तनों से दूध पिलाती है उसी प्रकार तेरे सिवाय कौन है जो हमारा पालन पोषण करेगा। वेद कहते हैं की तुझ में सारा ब्रह्मांड समाया हुआ है।  हे प्रभु हमारी रक्षा करो।”

 

कनक दास ने इस प्रकार के 160 पद लिखे जो उन की पुस्तक हरी भक्ति सागर में संकलित हैं।  इन के गुरु इन्हें तिमप्पा की बजाय तिम्मरस कहते थे। इस का अर्थ है तिम्मराजा।  इन के ह्रदय में गुरु जनों और देवताओं के प्रति असीम श्रद्धा थी।  वे प्रतिदिन केशव के मंदिर में जाकर उन की मूर्ति को टकटकी लगा कर देखते रहते थे।  उन के मन में विचार उठते, ” मैं कहाँ से आया हूँ ? आगे मुझे कहाँ जाना है ? यहाँ कब तक   रहना है ? इन्हें सभी व्यक्तियों में भगवद् दर्शन होते थे।

 

एक दिन की बात है। तिम्मरस भगवन ध्यान में लीन थे।  उन्हें लगा की पवन पुत्र हनुमान जी की मूर्ति उन के सामने विराज मान है।  उन के मन में हनुमान जी और उन से जुडी भगवान राम सम्बन्धी सभी घटनाएं एक चित्र श्रृंखला की तरह दिखाई देने लगी।  देखते देखते उन्हें ऐसा लगने लगा जैसे सभी घटनाएं उन के सामने घटित हो रही हों। थोड़ी देर बाद सामान्य स्थिति आने पर उन्हें लगा  शायद

संत कनकदास ने बताई सही राह -


दक्षिण भारत में एक संत हुए हैं जिनका नाम था मध्वाचार्य। मध्वाचार्य के अनेक शिष्य थे। उन शिष्यों में एक का नाम था - कनकदास। साधु कनकदास आला दर्जे के संत थे। ज्ञान और विनम्रता की वे प्रतिमूर्ति थे।
 
एक दिन मध्वाचार्य के कुछ शिष्य इस विषय पर परस्पर चर्चा कर रहे थे कि ईश्वर को कौन प्राप्त कर सकता है। सभी के अलग-अलग मत थे और किसी भी एक मत पर सहमति नहीं हो पा रही थी। अंततोगत्वा सभी ने साधु कनकदास से पूछने का निश्चय किया।
 
शिष्यों में से एक साधु ने सर्वप्रथम कनकदास से प्रश्न किया - ‘क्या मैं परमात्मा को पा सकता हूं?’ कनकदास ने उत्तर दिया- ‘अवश्य, किंतु यह तब होगा जब ‘मैं’ जाएगा।’ इसके बाद सभी शिष्यों ने बारी-बारी से यही सवाल किया और सभी को कनकदास ने यही उत्तर दिया। हैरान शिष्यों में से एक ने उनसे पूछा- ‘स्वामीजी आप भी तो भगवान के पास जाएंगे न?’ कनकदास बोले- ‘अवश्य जाऊंगा, किंतु तभी, जब ‘मैं’ जाएगा।’
 
शिष्य ने अगला प्रश्न किया - ‘स्वामीजी! यह ‘मैं’ कौन है और यह किस-किस के साथ जाएगा?’ तब कनकदास ने स्पष्ट किया- ‘मैं’ का अर्थ है मोह, अहंकार। जब तक ‘मैं’ और ‘मेरा’ तथा ‘मैं हूं’ का अहंकार नहीं मिटेगा, तब तक हम ईश्वर को नहीं पा सकते। वस्तुत: प्रभु प्राप्ति के मार्ग की यही सबसे बड़ी रुकावट है।’ सभी शिष्यों के मन की उलझन कनकदास के उत्तर से दूर हो गई। सार यह है कि अहंकार द्वैतभाव को लाता है, जो अद्वैत की राह की सर्वप्रमुख बाधा है। अहंकार का विसर्जन ही ईश्वर से एकाकार होने की दिव्य उपलब्धि कराता है।

ऐसे संत को मैं सत्-सत् नमन करता हूं।

जय संत शिरोमणि कृष्ण-भक्त कनकदास की।

जय पाल समाज।

पाल समाज छतरपुर म.प्र. ( युवा संगठन )

Saturday, 3 February 2018

गड़रिया ।

गड़रिया
गड़रिया एक जाति है जो पिछड़े वर्ग में आती है। इनका मुख्य व्यवसाय गाय ,भेड़ ,बकरी को पालना था, जो अब धीरे धीरे चारागाह की कमी के कारण अन्य व्यवसाय करना शुरू कर रहे हैं l इनको विभिन्न नामो से जाना जाता है जैसे - पाल, बघेल, धनगर | यह जाति भारत में प्रायः सभी राज्यों में निवास करती हैं।
अधिकतर हिंदूधर्म को मानती है। छत्तीसगढ़ में गड़रिया जाति की मुख्यतः 4 प्रमुख उपजाति निवास करती है -(1)- झेरिया, (2)-देशहा, (3)-ढेन्गर, (4)-कोसरिया |
इसके अलावा झाडे, वराडे, और नीखर उपजाति भी कुछ भागो में निवास करती हैं।
और उत्तर प्रदेश में गड़ेरिया और पाल बहुत जादा है ये लोग अब गाय 'भैंस नहीं पलते हर कोई अपना अपना कार्य करते हैं लोगो को अब भी वहम है कि हम बहुत पीछे है पर अगर हमारी जाति को जो लोग जानते हैं उनका दिमाग हमारे लिए बदल चुका है बस अब हिन्दुस्तान को हमारी एकता दिखाना बकि है।

अब विस्तार से नीचे पढ़े...




परिच






प्रसिद्ध समाज विज्ञानी डाल्टन के अनुसार श्री आर. व्ही. रसेल एवं श्री हीरालाल ने "दी ट्राइब्स आफ इंडिया" में लिखा है कि गड़रिया शब्द "गाडार" एवं "या" दो शब्दों से मिलकर बना है। गाडार एक प्राकृतिक शब्द है जिसका अर्थ "भेंड" है। उसी प्रकार "धंग" का संस्कृत अर्थ जंगलों में रहने वालों से है। यह एक मिश्रित जाति है जो जातियों के विभिन्न नामों से अलग - अलग राज्यों में निवास करती है।.

गड़रिया धनगर धनगढ़ जाति एक आदिम जाति है। जिसका मूल एवं पैतृक व्यवसाय भेंड़ पालन करना एवं कम्बल बुनना है पूर्व से ही यह जाति जंगलों में घुम - घुम कर भेंड़ पालन का कार्य करते हुए जीवन यापन करते थे। इसलिए गड़रिया धनगर धनगड़ जाति खाना बदोष के नाम से जाना जाता था किन्तु समय परिवर्तन के साथ- साथ गांवों गलियों में बसते गए। गड़रिया धनगड़ जाति मूलतः आदिवासी जैसे ही है। ये जाति मूलतः रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग, राजनांदगांव, कवर्धा, महासमुन्द, धमतरी, कांकेर, बस्तर में पाए जाते है।

भौतिक एवं सांस्कृतिक

  1. ग्रामों व घरो की सजावट :- गड़रिया धनगड़ जाति के लोग प्रायः समूह ग्रामों में निवास करते है। ये लोग गली मोहल्लों या जंगलों के नजदीक कच्ची मिट्टी से या लकड़ी द्वारा तैयार किये गये मकानों में रहते है। गिली मिट्टी के मकान को गोबर से लिपकर मिट्टी के दिवा को सफेद छुही अथवा लाल पीली रंग के मिट्टी से पोताई कर सफाई करते है। दिवाल 10 - 11 फूट होने पर लकडी के बल्ली तथा बांस छज्जा तैयार करते है। तत्पश्चात देशी खपरैल से छप्पर तैयार करते है।
  2. घर की स्वच्छता साफ सफाई सजावटः- गड़रिया धनगड़ जाति के लोग घर को साफ सुथरा रखते है। प्रतिदिन गोबर से आंगन एवं घरों के अन्दर की लिपाई करते है।
  3. व्यक्तिगत स्वच्छता सफाई एवं साज सज्जाः- धनगड़ धनगर गड़रिया जाति के लोग सुबह जल्दी उठने के साथ शौच के लिए खुले जगह खेतों जंगलों में जाते है। बबूल, नीम, करन की पतली डाली से दतौन करते है कुछ लोग वर्तमान में दंतमंजन के साथ ब्रश से दांत साफ करते है। प्रतिदिन नहाया करते है, काली मिट्टी से बाल धोते है तथा पत्थर से हाथ - पैर रगड़कर साफ - सफाई करते है। नहाने के बाद बालों तथा शरीर में तेल लगाते है।
    1. आभूषण:- गडंरिया धनगर धनगड़ जाति गांव व सुदूर अंचलों में निवास करते है। चांदी, पितल आदि के गहने पहनते है।
    2. गोदना:- गड़रिया धनगड़ समाज की महिलाएं हाथ, पैर आदि में गोदना गोदते है। यह महिलाओं की पहचान होती है। वर्तमान परिवेश में धीरे - धीरे समाप्त हो रहा है किन्तु प्रत्येक महिलाएं अभी भी कम मात्रा में गोदना गोदते है।
    3. वस्त्र विन्यास:- गड़रिया धनगढ़ जाति के लोग हेंडलूम से बनी सूती वस्त्र का प्रयोग करते है। पहनावा घुटने तक रहता है। महिलाएं साड़ी, पेटीकोट, ब्लाउज एवं मिलों के कपड़े पहनने लगे है। पुरूष पहले छोटा गमछा पहनते थे वर्तमान में गांव में गमछा, तौलिया, लुंगी, धोती आदि कमर के नीचे तथा कमर के ऊपर बनियान, कमीज, कुर्ता आदि पहनने लगे है। आर्थिक दृष्टि ये सुदृढ़ पुरूष पेंट शर्ट आदि पहनने लगे है।
  4. रसोई उपकरण एवं भोजन बनाने का उपकरण:- धनगढ़ गड़रिया जाति के लोग भोजन पकाने के लिए मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करते थे। ग्रमीण अंचलों में आज भी मिट्टी के बर्तन में भोजन पकाते है। रसोई घर में मिट्टी से बना एक मुंह एवं दो मुंह वाना चूल्हा का उपयोग करते है। इसके अलावा कलछुल, चिमटा, झारा आदि भी होता था। रोटी बनाने के लिए तवा, भात बनान के लिए मिट्टी का बर्तन होता था। वर्तमान समय में इस जाति के लोग एल्युमिनियम, स्टील के बर्तन का प्रयोग करने लगे है। खाना खाने के लिए कांसा, पितल, स्टील के थाली, पानी पीने के लिए कांसा एवं स्टील के गिलास, लोटा का उपयोग किया जाता है।
  5. घरेलु उपकरण:-धनगढ़ गड़रिया जाति के लोग भोजन पकाने के लिए मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करते थे। ग्रामीण अंचलों में आज भी मिट्टी के बर्तन में भोजन पकाते है। रसोई घर में मिट्टी से बना एक मुंह एवं दो मुंह वाना चूल्हा का उपयोग करते है। इसके अलावा कलछुल, चिमटा, झारा आदि भी होता था। रोटी बनाने के लिए तवा, भात बनान के लिए मिट्टी का बर्तन होता था। वर्तमान समय में इस जाति के लोग एल्युमिनियम, स्टील के बर्तन का प्रयोग करने लगे है। खाना खाने के लिए कांसा, पितल, स्टील के थाली, पानी पीने के लिए कांसा एवं स्टील के गिलास, लोटा का उपयोग किया जाता है।
  6. घरेलु उपकरणों में सोने के लिए खाट जो लकड़ी से बना हुआ एवं कांसी एवं बूच की रस्सी से गुथा होता है। ओढ़ने बिछाने के लिए कपड़ा, अनाज धान कुटने के लिए कूषन इत्यादि होते है। इसके अलावा गड़रिया जाति के लोगों का स्वयं का बनाया कंबल, चटाई, भेंड बकरी चराने के लिए लाठी तथा पिड़हा का घरेलु उपकरण के रूप में उपयोग किया जाता है। गांव में वर्षा और धूप से बचने के लिए घास से बना छतरी (खुमरी) बिजली के अभाव में लालटेन ढिबरी (चिमनी) का उपयोग किया जाता है।
  7. कृषि उपकरण:- गड़रिया धनगड़ जाति के लोगो के पास हल, बैलगाड़ी, कुल्हाड़ी, कुदाली, फावड़ा, हसिया,पैसूल आदि प्रमुख रूप् से पाए जाते । हल से खेत की जुताई बैलों के द्वारा किया जाता है। वर्तमान समय में बहुत ही कम लोग ट्रेक्टर द्वारा कृषि कार्य करने लगे है।
  8. भोजन:- गड़रिया धनगड़ जाति का प्रमुख भोजन चावल, कोदो, उड़द, लाखड़ी एवं मौसमी साग भाजी है। मुख्य त्यौहार दिवाली, दशहरा, तीज, होली, नवाखाई में बकरा, मुर्गा, भेड़ आदि का मांस खाते है।
  9. मादक द्रव्यों का सेंवन:- विशेष अवसरों पर विभिन्न संस्कारों में महुआ से बना शराब का सेवन करते है। लोग तम्बाकू, गुड़ाखू, बीड़ी हुक्का का भी सेवन करते है।

आर्थिक जीवन:- गड़रिया धनगढ़ जाति के लोगो का आर्थिक जीवन निम्न है

  1. इनका मूल व्यवसाय भेड़ पालन एवं कंबल बनाना है। जो चारागाह के अभाव में समाप्ति की ओर है। इसलिए कृषि कार्य करने लगे है। जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन होती है खेती करके शेष समय पर दूसरो के मजदूरी करके अपना जीवन यापन करते है।
  2. धान की खेती:- जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन होती है वे लोग वर्षा के पूर्व खेत की साफ - सफाई करके धान की खेती करते है। धान के पौधे बड़े होने पर बियासी के बाद निदाई करते है। ताकि धान की पौधे की बाढ़ न रूके, धान पकने पर इसे काटकर खलिहान में एकत्रित करके सुखाया जाता है एवं घर में संग्रहित करते है।
  3. कोदो कुटकी:- कोदो कुटकी की खेती इस समुदाय के जिनके पास भर्री जमीन होता है। उनके द्वारा किया जाता है लेकिन वर्तमान समय में यह उपज कम देखने को मिलता है। फसल पकाने के बाद सुखा कर बैल या लकड़ी से पिटकर दाने को अलग किया जाता है। इसका उपयोग भात या पेज बनाकर करते है।
  4. उड़द, मूंग, लाखड़ी:- उड़द, मूंग, लाखड़ी का उपयोग दाल के रूप में किया जाता है। लेकिन आर्थिक स्थिति से कमजोर होने के कारण खाने में इसका उपयोग कम परन्तु बेचकर पैसे लिये जाते है। यह इस वर्ग का पैसा कमाने का एक साधन है।
  5. पशुपालन :- गड़रिया धनगढ़ जाति के लोग भेड़, बकरी, गाय, मुर्गी इत्यादि पालते है। तथा इसे बेचकर अपने गुजर बसर के पैसे एकत्रित करते है। पशुओं की मांग खेती को उपजाऊ बनाने के लिये किये जाते है।
  6. नौकरी:- धनगढ़ गड़रिया जाति के लोग जो पढ़े लिखे है कुछ नौकरियो में है। लेकिन जिस स्थिति में से लोग है उस स्थिति के कारण नौकरी पेशा में संख्या बहुत कम है इस जाति में शिक्षा का अभाव है।

सामाजिक जीवन:- धनगढ़ गड़रिया जाति की सामाजिक संरचना को जानने के लिए उनकी जाति, उपजाति, वर्ग, नातेदारी परिवार एवं अन्र्तराज्यीय संबंधों का अध्ययन किया जाना आवष्यक है। प्राप्त जानकारी के अनुसार सामाजिक जीवन संबंधी संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है-

  1. वर्गभेंद:- गड़रिया धनगढ़ जाति आदिम जाति है। इस जाति का सृजन भेंड़ चराने से संबंधित है। इस जाति के बीच वर्गभेद देखने को मिलता है। झेरिया, देसहा, ढेगर, निखर, झाड़े एवं वराडे 06 फिरका मुख्य है। सभी गड़रिया जाति में देवी देवताओं का पूजन कर मांस मदिरा खाते पीते है। सभी गड़रिया होने के बाद भी रोटी बेटी का संबंध नही रखते है। जबकि सभी मूलस्थ गड़रिया है। सभी फिरका के लोग अपने आप को दूसरे से उंचा समझते है।
  2. गोत्र:- गड़रिया धनगढ़ जाति के प्रमुख 06 फिरकों में विभक्त है। किन्तु गोत्र में कोई वर्ग भेद नही है। पोघे, पषु, पक्षी, फल से संबंधित है। जैसे कस्तुमारिया, अहराज, नायकाहा , पाल, बघेल, चंदेल, महतों,हंसा, धनकर, धनगर कांसी आदि है।
  3. नातेदारी:- इसमें नातेदारी के संबंध को दो भगो में विभक्त किया गया है रक्त संबंध तथा विवाह संबंध। रक्त संबंधी को विवाह संबंधी के आपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। परन्तु प्राथमिक नातेदारी सेु जुड़े रिष्तेदारी में अधिक नाजदीकी का संबंध पाया जाता है। नातेदारी की शब्दावली जो हिन्दी में उपयोग होते है। मौसा - मौसी, नाना - नानी, दामाद, बहु उनके नातेदारी के अनुसार संबंधित किया जाता है।

परिवार:- धनगढ़ धनगर गड़रिया जाति में परिवार पैतृकात्मक, विस्तृत एवं पृतिवंषीय स्थानीय निवास पाया जाता है। संयुक्त परिवार में बड़े बुढे का आदर किया जाता है। उनके सालाह के अनुसार कार्य करते है। विवाह होने के बाद भी पुत्र पिता के साथ रहता है। किन्तु धीरे - धीरे सभी लोग अलग - अलग रहने लगते है। पिता के मृत्यु के पश्चात् जीवित पुत्रो के बीच भूमि का विभाजन कर दिया जाता है।

पारिवारिक संबंध:- परिवार में पारिवारिक संबंध आपस में प्रेम भाव से होता है । आपस में विश्वास एवं प्रेम की कमी होने पर परिवार धीरे धीरे टूटने लगता है। सामान्यतः परिवार के बीच संबंध संक्षिप्त में निम्नानुसार है।

  1. परिवार का मुखिया प्रायः पिता या संयुक्त परिवार होने पर वृद्ध या बुजुर्ग व्यक्ति होता है। मुखिया या उसकी पत्नी के बीच संबंध मधुर होता है । परिवार में मुखिया होने के कारण परिवार की समस्त जिम्मेदारी होने पर आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयास करता है।
  2. पति पत्नी दोनो मिलकर जीवन की गाड़ी को आगे बढ़ाते है। पत्नी पति के कार्यो में सहयोग करती है। इन्ही के कार्यो को देखने के कारण परिवार के अन्य बच्चे अपने मां बाप से पैतृक कार्या को सिख लेते है तथा परिवार की परम्परा एवं समाज की संस्कृति को बनाए रखते है। यही परिवारिक संबंध में मददगार होता है।
  3. अंतरजातीय संबंध:- धनगढ़ गड़रिया जाति के लोग जहां रहते है। उनका संबंध उनके साथ भाई चारे का रहता है। वर्षों से उनके साथ रहने के कारण कई बार पारिवारिक संबंध स्थापित हो जाता है। जिससे उनके सुख, दुख, काम - काज एवं अन्य महत्वपूर्ण कार्यो में भी मदद करते है।
  4. स्त्रियों की स्थिति:- गड़रिया धनगढ़ जाति के महिलाओं की स्थिति सोचनीच है। महिला घर के समस्त कार्यो को निपटाकर खेती, मजदूरी करती है। काम से आने के बाद घर की सफाई, चूल्हा चैका बर्तन आदि में लग जाती है। इस प्रकार दिन भर काम करती रहती है इस जाति की महिलाएं प्रायः निरक्षर होती है। दिनभर के काम काज एवं धूप में रहने के कारण शरीर का रंग सामान्यतः सांवली तथा काली होती है। बुजुर्ग होने के साथ ही सम्मान बढ़ता जाता है।

जीवन चक्र:-

धनगढ़ धनगर गड़रिया जाति के जीवन चक्र में मुख्यतः जन्म संस्कार, विवाह संस्कार एवं मृत्यु संस्कार का ही अधिक महत्व है। जो निम्नानुसार है -

  1. जन्म संस्कार:- स्त्री की रक्त स्वाल में अपवित्र नही माना जाता है। मां के गर्भ में बच्चा पलने पर परम्परानुसार 07 महिने में सधौरी खिलाते है। गर्भवती महिला के मायके पक्ष के लोग ससुराल में पहुंचकर इस खिलाते है। बच्चा पैदा होने पर जातीय रीति रिवाज एवं परम्परा कं अनुसार उनका छः दिन में छट्ठी मनाते है। इस अवधि में बच्चा व मां छोहर छुआ मानते है। उनको छुआ छुत मानते हुए देवता घर में नही रखते है। तथा पूजा नही कराते है। छट्ठी के बाद बारहवे दिन बरही करते है। तत्पष्चात् घर के धार्मिक कार्यो में शरीक होते है।
  2. विवाह संस्कार:- सगोत्र विवाह पूरी तरह वर्जित है। इनके नातेदारी में कही कही मामा, फूफू का लेन देन चलता है। वर पक्ष के लोग लड़की मांगने के लिए लड़की के पिता के घर जाते है।
  3. मृत्यु संस्कार:- गड़रिया धनगड़ जाति की मृत्यु होने पर शरीर को जलाते है। तीसरा दिन फूल (हड्डी) को घाट से चुनकर लाते है। बड़ा पुत्र छोटा भाई एवं अन्य रिश्तेदार उसके हड्डी को धार्मिक नदियों में प्रवाहित करते है। मृत्यु का कार्यक्रम 10 वे दिन संपन्न होता है। उस दिन सगोत्र पुरूष मुंडन कराते है। अपने मान्यता के अनुसार दान दक्षिणा करते है तथा अपने स्वजातीय लोगों को मृत्यु भोज खिलातें है।

धार्मिक जीवन एवं त्योहार:-

धनगढ़ गड़रिया जाति के सभी वर्ग की प्रकृति धार्मिक है। मुख्य त्योहार हरियाली, गणेश, तीजा, पोला, नवरात्र, नवाखाई, दिवाली, दशहरा, होली आदि है। भक्ति में अपने देवी देवताओं के मान्यता के रूप में मानते है। कुवांर एवं चैत में जवारा, आषाढ़ एवं अघहन में पूजाई, कार्तिक में नवाखाई एवं पूस माह मे छेर छेरा त्योहार मानते है।

देवी देवताओं:- आदिवासियों की भांति धनगढ़ गड़रिया जाति में भी पंचदेव की मान्यता प्रचलित है। यह जाति घर में जवारा, पूजाई, विवाह के समय धूरपईया आदि पुरातन मान्यतायें है। गड़रिया जाति दूल्हादेव को मानते है। कालीमाई, कंकाली, महामाई एवं दुर्गा जी को मानते है।

  1. दूल्हादेव के आधार पर घर में विवाह रचाकर मनौती मानते है।
  2. नवरात्र में कंकाली देवी को घर में जवारा बोकर मानते है।
  3. अपने जानवर भेड़ की रक्षा के लिए पूजाई कर पूजा अर्चना करते है।

भौतिक एवं संस्कृति मे परिवर्तन:-

  1. गड़रिया धनगढ़ धनगर जाति के लोग पहले मिट्टी के बने खपरैल के घर में रहते थे। अब स्थिति परिवर्तित होने लगी है। लोग पक्का मकान बनवाने लगे है। लालटेन एवं ढिबरी के जगह बिजली का उपयोग कर रहे है।
  2. पहनावे में परिवर्तन:- धनगढ़ धनगर गड़रिया जाति के सभी वर्ग के पहनावे में परिवर्तन आया है। हेडलुम कपड़े की जगह मिलों में तैयार किए गए कपड़े को दर्जी से सिले हुए कपड़े आधुनिक फैशन के अनुसार पहनने लगे है।
  3. आर्थिक परिवर्तन:- गड़रिया धनगढ़ गड़रिया जाति की स्थिति दयनीय है। उसमें धीरे धीरे परिवर्तन की शुरुवात हुआ है। लोग उन्नत कृषि करने का प्रयास कर रहे है एवं नये कृषि पैदावार का लाभ ले रहे है।
  4. सामाजिक स्थिति में परिवर्तन:- धनगर धनगड़ गड़रिया जातियों में पहले संयुक्त परिवार अधिकांष देखने को मिलता था। अब छोटे छोटे परिवार में विभक्त हो गए है। इस जाति में 06 वर्गभेद है। झेरिया, ढेगरए देसहा, निखर, झाडे वराडे सभी के बीच ऊंच नीच का भेद भाव है। वक्त की आवश्यकता के अनुसार अब एक जुट हो रहे है।
  5. मध्यप्रदेश में अभी भी पाल जाति पिछड़ी है जो दूसरों पर निर्भर है , जो आज तक पुराने ख्यालातो को मानती आ रही है..यहां पाल जाति को आगे बढ़ाने और समाज सुधार हेतु अब "पाल समाज छतरपुर म.प्र." युवा संगठन ने कदम उठाया है , जिसका मुख्य उद्देश्य समाज की पुरानी कुरीतियो जैसे - बाल विवाह, दहेज प्रथा, बालश्रम,और अन्य बुराइयों के खिलाफ डटकर विरोधकर समाज शिक्षित करना हैै।

पाल वंश का इतिहास

पाल साम्राज्य

पाल साम्राज्य

हर्ष के समय के बाद से उत्तरी भारत के प्रभुत्व का प्रतीक कन्नौज माना जाता था। बाद में यह स्थान दिल्ली ने प्राप्त कर लिया। पाल साम्राज्य की नींव 750 ई. में 'गोपाल' नामक राजा ने डाली। बताया जाता है कि उस क्षेत्र में फैली अशान्ति को दबाने के लिए कुछ प्रमुख लोगों ने उसको राजा के रूप में चुना। इस प्रकार राजा का निर्वाचन एक अभूतपूर्व घटना थी। इसका अर्थ शायद यह है कि गोपाल उस क्षेत्र के सभी महत्त्वपूर्ण लोगों का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो सका और इससे उसे अपनी स्थिति मज़बूत करन में काफ़ी सहायता मिली।

पाल वंश का सबसे बड़ा सम्राट 'गोपाल' का पुत्र 'धर्मपाल' था। इसने 770 से लेकर 810 ई. तक राज्य किया। कन्नौज के प्रभुत्व के लिए संघर्ष इसी के शासनकाल में आरम्भ हुआ। इस समय के शासकों की यह मान्यता थी कि जो कन्नौज का शासक होगा, उसे सम्पूर्ण उत्तरी भारत के सम्राट के रूप में स्वीकार कर लिया जाएगा। कन्नौज पर नियंत्रण का अर्थ यह भी थी कि उस शासक का, ऊपरी गंगा घाटी और उसके विशाल प्राकृतिक साधनों पर भी नियंत्रण हो जाएगा। पहले प्रतिहार शासक 'वत्सराज' ने धर्मपाल को पराजित कर कन्नौज पर अधिकार प्राप्त कर लिया। पर इसी समय राष्ट्रकूट सम्राट 'ध्रुव', जो गुजरात और मालवा पर प्रभुत्व के लिए प्रतिहारों से संघर्ष कर रहा था, उसने उत्तरी भारत पर धावा बोल दिया। काफ़ी तैयारियों के बाद उसने नर्मदा पार कर आधुनिक झाँसी के निकट वत्सराज को युद्ध में पराजित किया। इसके बाद उसने आगे बढ़कर गंगा घाटी में धर्मपाल को हराया। इन विजयों के बाद यह राष्ट्रकूट सम्राट 790 में दक्षिण लौट आया। ऐसा लगता है कि कन्नौज पर अधिकार प्राप्त करने की इसकी कोई विशेष इच्छा नहीं थी और ये केवल गुजरात और मालवा को अपने अधीन करने के लिए प्रतिहारों की शक्ति को समाप्त कर देना चाहता था। वह अपने दोनों लक्ष्यों में सफल रहा। उधर प्रतिहारों के कमज़ोर पड़ने से धर्मपाल को भी लाभ पहुँचा। वह अपनी हार से शीघ्र उठ खड़ा हुआ और उसने अपने एक व्यक्ति को कन्नौज के सिंहासन पर बैठा दिया। यहाँ उसने एक विशाल दरबार का आयोजन किया। जिसमें आस-पड़ोस के क्षेत्रों के कई छोटै राजाओं ने भाग लिया। इनमें गांधार (पश्चिमी पंजाब तथा काबुल घाटी), मद्र (मध्य पंजाब), पूर्वी राजस्थान तथा मालवा के राजा शामिल थे। इस प्रकार धर्मपाल को सच्चे अर्थों में उत्तरपथस्वामिन कहा जा सकता है। प्रतिहार साम्राज्य को इससे बड़ा धक्का लगा और राष्ट्रकूटों द्वारा पराजित होने के बाद वत्सराज का नाम भी नहीं सुना जाता। विषय सूची

इन तीनों साम्राज्यों के बीच क़रीब 200 साल तक आपसी संघर्ष चला। एक बार फिर कन्नौज के प्रभुत्व के लिए धर्मपाल को प्रतिहार सम्राट 'नागभट्ट' द्वितीय से युद्ध करना पड़ा। ग्वालियर के निकट एक अभिलेख मिला है, जो नागभट्ट की मृत्यु के 50 वर्षों बाद लिखा गया और जिसमें उसकी विजय की चर्चा की गई है। इसमें बताया गया है कि नागभट्ट द्वितीय ने मालवा तथा मध्य भारत के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की तथा 'तुरुष्क तथा सैन्धव' को पराजित किया जो शायद सिंध में अरब शासक और उनके तुर्की सिपाही थे। उसने बंग सम्राट को, जो शायद धर्मपाल था, को भी पराजित किया और उसे मुंगेर तक खदेड़ दिया। लेकिन एक बार फिर राष्ट्रकूट बीच में आ गए। राष्ट्रकूट सम्राट गोविन्द तृतीय ने उत्तरी भारत में अपने पैर रखे और नागभट्ट द्वितीय को पीछे हटना पड़ा। बुंदेलखण्ड के निकट एक युद्ध में गोविन्द तृतीय ने उसे पराजित कर दिया। लेकिन एक बार पुनः राष्ट्रकूट सम्राट मालवा और गुजरात पर अधिकार प्राप्त करने के बाद वापस दक्षिण लौट आया। ये घटनाएँ लगभग 806 से 870 ई. के बीच हुई। जब पाल शासक कन्नौज तथा ऊपरी गंगा घाटी पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने में असफल हुए, तो उन्होंने अन्य क्षेत्रों की तरफ अपना ध्यान दिया। धर्मपाल के पुत्र देवपाल ने, जो 810 ई. में सिंहासन पर बैठा और 40 वर्षों तक राज्य किया, प्रागज्योतिषपुर (असम) तथा उड़ीसा के कुछ क्षेत्रों में अपना प्रभाव क़ायम कर लिया। नेपाल का कुछ हिस्सा भी शायद पाल सम्राटों के अधीन था। देवपाल की मृत्यु के बाद पाल साम्राज्य का विघटन हो गया। पर दसवीं शताब्दी के अंत में यह फिर से उठ खड़ा हुआ और तेरहवीं शताब्दी तक इसका प्रभाव क़ायम रहा। अरब व्यापारी सुलेमान के अनुसार

1 अरब व्यापारी सुलेमान के अनुसार :- पाल वंश के आरम्भ के शासकों ने आठवीं शताब्दी के मध्य से लेकर दसवीं शताब्दी के मध्य, अर्थात क़रीब 200 वर्षों तक उत्तरी भारत के पूर्वी क्षेत्रों पर अपना प्रभुत्व क़ायम रखा। दसवीं शताब्दी के मध्य में भारत आने वाले एक अरब व्यापारी सुलेमान ने पाल साम्राज्य की शक्ति और समृद्धि की चर्चा की है। उसने पाल राज्य को 'रूहमा' कहकर पुकारा है (यह शायद धर्मपाल के छोटे रूप 'धर्म' पर आधारित है) और कहा है कि पाल शासक और उसके पड़ोसी राज्यों, प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों में लड़ाई चलती रहती थी, लेकिन पाल शासन की सेना उसके दोनों शत्रुओं की सेनाओं से बड़ी थी। सुलेमान ने बताया है कि पाल शासक 50 हज़ार हाथियों के साथ युद्ध में जाता था और 10 से 15 हज़ार व्यक्ति केवल उसके सैनिकों के कपड़ों को धोने के लिए नियुक्त थे। इससे उसकी सेना का अनुमान लगाया जा सकता है।

1.1 तिब्बती ग्रंथों से :-

पाल वंश के बारे में हमें तिब्बती ग्रंथों से भी पता चलता है, यद्यपि यह सतरहवीं शताब्दी में लिखे गए। इनके अनुसार पाल शासक बौद्ध धर्म तथा ज्ञान को संरक्षण और बढ़ावा देते थे। नालन्दा विश्वविद्यालय को, जो सारे पूर्वी क्षेत्र में विख्यात है, धर्मपाल ने पुनः जीवित किया और उसके खर्चे के लिए 200 गाँवों का दान दिया। उसने विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय की भी स्थापना की। जिसकी ख्याति केवल नालन्दा के बाद है। यह मगध में गंगा के निकट एक पहाड़ी चोटी पर स्थित था। पाल शासकों ने कई बार विहारों का भी निर्माण किया जिसमें बड़ी संख्या में बौद्ध रहते थे। पाल शासक और तिब्बत

1.2 पाल शासक और तिब्बत :-

पाल शासकों के तिब्बत के साथ भी बड़े निकट के सांस्कृतिक सम्बन्ध थे। उन्होंने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान सन्तरक्षित तथा दीपकर (जो अतिसा के नाम से भी जाने जाते हैं) को तिब्बत आने का निमंत्रण दिया और वहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म के एक नए रूप को प्रचलित किया। नालन्दा तथा विक्रमशील विश्वविद्यालयों में बड़ी संख्या में तिब्बती विद्वान बौद्ध अध्ययन के लिए आते थे।

पाल शासकों के दक्षिण पूर्व एशिया के साथ आर्थिक तथा व्यापारिक सम्बन्ध थे। दक्षिण पूर्व एशिया के साथ उनका व्यापार उनके लिए बड़ा लाभदायक था और इससे पाल साम्राज्य की समृद्धि बढ़ी। मलाया, जावा, सुमात्रा तथा पड़ोसी द्वीपों पर राज्य करने वाले शैलेन्द्र वंश के बौद्ध शासकों ने पाल-दरबार में अपने राजदूतों को भेजा और नालन्दा में एक मठ की स्थापना की अनुमति माँगी। उन्होंने पाल शासक देवपाल से इस मठ के खर्च के लिए पाँच ग्रामों का अनुदान माँगा। देवपाल ने उसका यह अनुरोध स्वीकार कर लिया। इससे हमें इन दोनों के निकट सम्बन्धों के बारे में पता चलता है।

धर्मपाल (७७०-८१० ई.)- गोपाल के बाद उसका पुत्र धर्मपाल ७७० ई. में सिंहासन पर बैठा। धर्मपाल ने ४० वर्षों तक शासन किया। धर्मपाल ने कन्‍नौज के लिए त्रिदलीय संघर्ष में उलझा रहा। उसने कन्‍नौज की गद्दी से इंद्रायूध को हराकर चक्रायुध को आसीन किया। चक्रायुध को गद्दी पर बैठाने के बाद उसने एक भव्य दरबार का आयोजन किया तथा उत्तरापथ स्वामिन की उपाधि धारण की। धर्मपाल बौद्ध धर्मावलम्बी था। उसने काफी मठ व बौद्ध विहार बनवाये।

उसने भागलपुर जिले में स्थित विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय का निर्माण करवाया था। उसके देखभाल के लिए सौ गाँव दान में दिये थे। उल्लेखनीय है कि प्रतिहार राजा नागभट्ट द्वितीय एवं राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने धर्मपाल को पराजित किया था।

देवपाल (८१०-८५० ई.)- धर्मपाल के बाद उसका पुत्र देवपाल गद्दी पर बैठा। इसने अपने पिता के अनुसार विस्तारवादी नीति का अनुसरण किया। इसी के शासनकाल में अरब यात्री सुलेमान आया था। उसने मुंगेर को अपनी राजधानी बनाई। उसने पूर्वोत्तर में प्राज्योतिषपुर, उत्तर में नेपाल, पूर्वी तट पर उड़ीसा तक विस्तार किया। कन्‍नौज के संघर्ष में देवपाल ने भाग लिया था। उसके शासनकाल में दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहे। उसने जावा के शासक बालपुत्रदेव के आग्रह पर नालन्दा में एक विहार की देखरेख के लिए ५ गाँव अनुदान में दिए।

देवपाल ने ८५० ई. तक शासन किया था। देवपाल के बाद पाल वंश की अवनति प्रारम्भ हो गयी। मिहिरभोज और महेन्द्रपाल के शासनकाल में प्रतिहारों ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश भागों पर अधिकार कर लिया।
११वीं सदी में महीपाल प्रथम ने ९८८ ई.-१००८ ई. तक शासन किया। महीफाल को पाल वंश का द्वितीय संस्थापक कहा जाता है। उसने समस्त बंगाल और मगध पर शासन किया।
महीपाल के बाद पाल वंशीय शासक निर्बल थे जिससे आन्तरिक द्वेष और सामन्तों ने विद्रोह उत्पन्‍न कर दिया था। बंगाल में केवर्त, उत्तरी बिहार मॆम सेन आदि शक्‍तिशाली हो गये थे।
रामपाल के निधन के बाद गहड़वालों ने बिहार में शाहाबाद और गया तक विस्तार किया था।
सेन शसकों वल्लासेन और विजयसेन ने भी अपनी सत्ता का विस्तार किया।
इस अराजकता के परिवेश में तुर्कों का आक्रमण प्रारम्भ हो गया।


पाल वंश

पाल राज्य का क्षेत्र
पाल राज्य के बुद्ध और बोधिसत्त्व
धर्मपाल का राज्य

पाल साम्राज्य मध्यकालीन भारत का एक महत्वपूर्ण शासन था जो कि ७५० - ११७४ इसवी तक चला। पाल राजवंश ने भारत के पूर्वी भाग में एक साम्राज्य बनाया। इस राज्य में वास्तु कला को बहुत बढावा मिला। पाल राजा बौद्ध थे।

यह पूर्व मध्यकालीन राजवंश था। जब हर्षवर्धन काल के बाद समस्त उत्तरी भारत में राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक गहरा संकट उत्पन६न हो गया, तब बिहार, बंगाल और उड़ीसा के सम्पूर्ण क्षेत्र में पूरी तरह अराजकत फैली थी।

इसी समय गोपाल ने बंगाल में एक स्वतन्त्र राज्य घोषित किया। जनता द्वारा गोपाल को सिंहासन पर आसीन किया गया था। वह योग्य और कुशल शासक था, जिसने ७५० ई. से ७७० ई. तक शासन किया। इस दौरान उसने औदंतपुरी (बिहार शरीफ) में एक मठ तथा विश्‍वविद्यालय का निर्माण करवाया। पाल शासक बौद्ध धर्म को मानते थे। आठवीं सदी के मध्य में पूर्वी भारत में पाल वंश का उदय हुआ। गोपाल को पाल वंश का संस्थापक माना जाता है।

धर्मपाल (७७०-८१० ई.)

देवपाल (८१०-८५० ई.)

महीपाल

पालवंश के शासकसंपादित करें

पाल राजवंश के पश्चात सेन राजवंश ने बंगाल पर १६० वर्ष राज किया।